ओढ़कर बैठा हूँ


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ओढ़कर बैठा हूँ मैं एक ख़ामोशी की चादर को
इस बार ख्यालो में आओ तो चुप्पी तोड़ चले जाना
कडवी लगती है वो फ्रीज़ में रक्खी मीठी लस्सी भी
बेस्वाद हो गया है नाश्ता और मेरा फेवरेट खाना
नहीं जंचती मुझे कोई भी धुन आजकल के गानों की
इस बार यादो में आओ तो कोई नयी सी धुन सुना जाना |
ओढ़कर बैठा हूँ ........
 
सूरज से दुश्मनी कर बैठा हूँ एक बात के पीछे मैं
के इस बार चाँद की चांदनी से इश्क़ लड़ाना है मुझे
पशोपेश में है मेरी सारी ख्वाहिशें अबतलक ऐसे
की पूर्णमासी की रात तुझे छत पर बुलाऊंगा कैसे 
घुमने लगा हूँ हर रास्ते पर अजनबियों के तरहा
हर कोई मुझको सनकी कहने लग गया है
रातों को जागते हुए और चाँद को देखते देखते
थक गया हूँ ख्वाहिशों की आग में जलते हुए मैं
इस बार मिलने आओ तो सारी थकान मिटा जाना |
ओढ़कर बैठा हूँ .........
 
ग़ज़लें कविता लिखना भी अब कभी कभार होता है
तुमसे बात किये बगैर शायद मैं कुछ लिख नहीं पाता
अजीब कशमकश में डूबी है ये सारी दास्तानें इस तरह
खामोश तुम रहने लगी हो और मैं कुछ बोल नहीं पाता
अब तो मिलने वाले दोस्त भी ताने मरने लग गए है
के क्या काव्य सृजन का पतझड़ शुरू हो गया है ?
बरबस मेरी आँखों से बरसने लगता है बूंद बूंद
जिसको मैं अब छुपाने की कोशिश करने लगा हूँ
इस बार सामने आओ तो सारे मोती समेट कर जाना |
ओढ़कर बैठा हूँ ........
                                                                    
                                           .....कमलेश.....

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