ग़ज़ल

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ये आँखें तुम्हारी शराब है क्या,
नाज़ुक होंठ कोई गुलाब है क्या ।
महकती है खुश्बू हर-तरफ तेरी,
जिस्म ये तुम्हारा गुलशन है क्या ।
रातों से तकरार-चांद से मौसिक़ी,
तुझसे इश्क़ कोई मज़ाक है क्या ।
छू लें तुम्हें जो कभी बेशर्मी से हम,
तो बतलाओ कोई ऐतराज़ है क्या ।
ऐसे वक़्त ज़ाया नहीं किया करते,
हसीन शामें हर रोज़ आती है क्या ।
मेरे सवालों पर ऐसे ख़ामोश बैठ गए,
किसी बात की तुम्हें नाराज़गी है क्या ।
ये ज़माना सताता ही है चाहने वालों को,
पर खुद सोचो इसकी औकात ही है क्या ।
माना कि एक दिन सबको मरना है,
तो बतलाओ हम जीना छोड़ दें क्या ।
कुछ दिनों से ख़फा हैं चंद मिलने वाले,
सोचता हूँ ये लोग कहीं के नवाब है क्या ।
मौत आए तो उसे कहना इंतज़ार करे,
तेरे दीदार के बगैर ही मर जाएंगे क्या ।
                                    
                                       -- कमलेश

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